shahil khan

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छोटे छोटे सवाल –२३

"शाबास !" चौधरी साहब गद्गद होकर बोले, "आज विद्यार्थियों में आपस में प्रेम नहीं रहा है। मैं चाहता हूँ कि हमारे स्कूल के विद्यार्थी भाई-भाई की तरह आपस में प्रेम करें। तुम्हारा क्या ख़याल है ?"

“आपने बिलकुल उचित कहा। सत्यव्रत उनकी नाटकीयता से प्रभावित होकर बोला, "छात्रों में परस्पर प्रेम तो होना ही चाहिए। प्राचीन आश्रम-शिक्षा-पद्धति की यही सबसे बड़ी विशेषता थी जो आज लुप्त होती जा रही है। सत्यव्रत ने निश्छल भाव से अपने विचारों को रख दिया। "बस, मुझे और कुछ नहीं पूछना।" चौधरी नत्थूसिंह ने मुख पर पूर्ण सन्तोष का भाव व्यक्त करते हुए लालाजी से कहा।

लालाजी का यह तीर अकस्मात् ही निशाने पर जा लगा था। अतः उन्हें जल्दी न थी। उन्होंने एक पल रुककर धीरे से कहा, "पंचों का निरणय सर-माथे।" फिर सत्यव्रत की ओर देखकर बोले, "तो भय्या सत्तेबरत, तुम समझो कि हमने तुम्हें लेई लिया। पर भय्या तुम अभी हो बच्चे। जानते हो सिच्छक का कार्य कित्ती जिम्मेवारी का होवे है।"

सत्यव्रत ने सिर झुका लिया कृतज्ञता से। शिक्षा-दान का जो पुनीत संकल्प उसके मन में था, आदर्श शिक्षा प्रणाली की जो रूपरेखा उसने बनाई थी और विद्यार्थियों को नैतिक अनुशासन के जिस साँचे में ढालने की उसने कल्पना की थी-वे सारे-के-सारे स्वप्न उसे साकार होते दिखाई देने लगे। अन्य उम्मीदवारों के बीच बैठकर उसने इस कॉलेज के बारे में कोई अच्छी धारणा नहीं बनाई थी, पर अब अचानक ही वह सारी भूमिका बदल गई। उत्तमचन्द जी का सिगरेट की निन्दा करना और मैनेजिंग कमेटी के इन तीन प्रमुख सदस्यों का चरित्र-निर्माण से सम्बन्धित प्रत्येक छोटी-छोटी बात पर ऐसे प्रश्न करना क्या इस बात का प्रमाण नहीं कि ये लोग साधु-प्रकृति के हैं और अपनी संस्था को आदर्श बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं? सत्यव्रत को प्रसन्नता हार्दिक हुई। लालाजी फिर बोले, "क्यों भय्या ! तुम्हारे विचार में अच्छे सिच्छक में क्या गुण होने चाहिएँ? और तुमने सिच्छक होने का ही निश्चय क्यों करा?"

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